भावनात्मक संवाद : भावनाओं का आदान प्रदान –
“भावनात्मक संवाद” का जब आरंभ हुआ, तभी हम लोगों ने एक दूसरे से वादा किया था कि इस पटल को एक स्वस्थ, सार्थक संवाद के रूप में रखेंगे, जहां अपनी- अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करेंगे।
कुछ विषय ऐसे होते हैं जो गहन अध्ययन, विश्लेषण और चिंतन चाहते हैं, और एक चिंतनशील व्यक्ति ही इस ओर एक सार्थक प्रयास कर सकता है। आज के समय मे हम सबकी, विशेष रूप से युवा पीढ़ी की एक आम समस्या है कि उनका ध्यान भटका रहता है, दूसरे शब्दों में कहूँ तो कहीं एकाग्रता ( Concentration ) है ही नहीं, और यह कमी ही हमारे जीवन की सारी कमियों का कारण है। इस पर विजय पा लें, थोड़ा ध्यान एकाग्र करना सीखें तो बहुत सारी समस्याएं खुद ही लुप्त हो जाएं।
ध्यान और अध्यात्मवाद का वैज्ञानिक दृष्टिकोण –
आप सोच रहे होंगे कि काश कोई ऐसा व्यक्तित्व हो, जो ध्यान और अध्यात्मवाद के विश्वरूपी सत्य को एक वैज्ञानिक की दृष्टि से देखे और यह दुष्कर कार्य हमारे कमल किशोर राजपूत जी ने कर दिखाया है। कमल जी पेशे से वैज्ञानिक हैं, यह तो आप सब जानते ही हैं, लेकिन धर्म, अध्यात्म और हमारी संस्कृति पर भी उनकी उतनी ही पैनी दृष्टि रहती है और अध्यात्म के क्षेत्र में उनका गहन अध्ययन भी है। बाएं मस्तिष्क, दाएं मस्तिष्क और पिनियल ग्लैंड के बारे में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हुए उसे धर्म और अध्यात्म से उनके जैसा व्यक्ति ही जोड़ सकता है।
शिव जी का तीसरा नेत्र –
शिव जी के तीसरे नेत्र की जब बात होती है तो पिनियल ग्लैंड के साथ जब उसे जोड़ा जाता है तो बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर भी मिलते हैं और कई सारे प्रश्न भी खड़े हो जाते हैं। मेरे दिमाग मे भी उनके इस आलेख को पढ़कर बहुत कुछ चल रहा है, कई प्रश्न, जिज्ञासा……जिनका समाधान किसी दिन कमल राजपूत जी ही हमारे साथ करेंगे।
“ध्यान” …..कितनी सरल परिभाषा कमल जी ने कर दी है, जिस “ध्यान” का नाम आते ही हमारे मन में यह सब आता है कि यह तो एक आध्यात्मिक अवस्था है, कुछ विशेष लोग ही कर सकते हैं, उसे उन्होंने कितने आसान लेकिन व्यवहारिक रूप से परिभाषित कर दिया कि “जो भी करें, उसे शत प्रतिशत तन्मयता से करें…..यही ध्यान है…..”कितनी सुंदर “ध्यान” की परिभाषा, परन्तु क्या यह सच है ?
सोचकर देखिए तो जवाब आएगा कि “हां” यही सच है क्योंकि हमलोग किसी भी काम को तन्मयता से करते ही नही, करते एक काम हैं और ध्यान बाकी की 100 बातों में लगा होता है।
पढ़कर देखिए यह लेख, आपको आपके बहुत से प्रश्नों, बहुत सी समस्याओं का समाधान मिलेगा। कमल किशोर राजपूत जी ने इस लेख को विशेषकर युवा पीढ़ी को ध्यान में रखकर लिखा है।
– कमल किशोर राजपूत ‘कमल’
वरिष्ठ वैज्ञानिक (DRDO),
शायर, कवि, चिंतक – विश्लेषक।
लम्बी अवधि से ध्यान और आध्यात्मवाद के विश्वरूपी शाश्वत सत्य-तत्व को एक वैज्ञानिक की दृष्टि से लिखना चाह रहा था, लेकिन अनंत को सीमित इन्द्रियों से समझना कठिन ही नहीं, अपितु असम्भव-सा प्रतीत हुआ, फ़िर भी दु:साहस कर रहा हूँ। सभी बुद्धिजीवी मेरे विचारों का आभास करेंगे और अन्तर्मन की धारणाओं एवं कुंठाओं की परिधि से ऊपर उठकर उस बेहद, उस असीम, उस अनंत को समझने, समझाने और पहचानने में सहायता करेंगे। अनंत-असीम-अपरिमित को अपनी संकुचित सीमित शक्तियों और धारणाओं के द्वारा शब्दों में ढ़ालने का ये तुच्छ-सा प्रयास है, बस एक प्रयास है जिसे आप स्वीकारेंगे, यही हृदय से प्रार्थना है मेरी।
शाश्वत सनातन धर्म –
जो कालान्तर में हिन्दू धर्म नाम से पहचाना गया, उसकी व्यावहारिक एवं मनोवैज्ञानिक सरलता में निहित गूढ़ता, विशालता एवं गहनता का स्पष्टीकरण या आंकलन, अपनी विश्लेषणात्मक क्षमता या दृष्टिकोण से कदापि नहीं कर सकूँगा।
पिछली कुछ सदियों में बांए मस्तिष्क (डिजीटल – अंकीय) का ही अधिकतर उपयोग और विकास हुआ है, दायें मस्तिष्क (ऐनलाग – अनुरूप) का कम और विशेषत: पीनियल ग्रंथि जिसे तीसरा नेत्र कहते हैं, आधुनिक वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि उसका विकास और उपयोग कम ही हुआ है, पिछली कई सदियों में, भौतिकवाद की प्रचुरता के कारण।
विगतकाल में शिव से लेकर कई सन्तों, ऋषि-मुनियों, अवतारों और महान विभूतियों ने इस तीसरे नेत्र को तपस्या एवं ध्यान-मार्ग से ही पाया है। वर्तमान और पूर्व शतक में गिने-चुने विरले महात्मा ही मिलेंगे, जिन्होंने इसे जाना और इसका आभास किया हो, उनकी श्रेणी अब अपवाद स्वरूप ही शेष रह गई है।
ध्यान और अध्यात्मवाद क्या है? शान्ति क्या है –
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम।।
अर्थ – जहां चित्त को लगाया जाए उसी वृत्ति में एक तार होना ही ध्यान है।
सरल शब्दों में जो भी करें उसे शत-प्रतिशत तन्मयता से करें, बस यही ध्यान है। अब इसे वेद और पुराणों की पांड़ुलीपियों में ढ़ूँढ़ना उतना ही कठिन है जितना समुद्र की नन्ही-नन्ही बून्दों को खोजना। ध्यान कठिन विषय है असम्भव तो कदापि नहीं, और ना ही कोई गूढ़ रहस्य है, बस मन:स्थिति की विसंगतियों को समझना ही इस मार्ग पर आगे बढ़ना है। मन:स्थिति में एक पल भी हम शान्त नहीं! तो शान्ति कहाँ! और शान्ति नहीं! तो ध्यान कहाँ! महान ऋषि पातंजलि जी ने योग को ‘चित्त वृत्ति निरोध योग:’ की कुँजी कहा है।
भौतिकतावादी दृष्टिकोण –
यह निश्चित है कि मन या चित्त के द्वारा ध्यान स्थिति कदापि सम्भव नहीं। मन की मूलत: प्रकृति ही चन्चलता है, मौन या चुप्पी इसे कदापि पसन्द नहीं! ऐसा क्यूँ? इसको समझना ही समस्या का एकमात्र समाधान है, हल है। जीवन पर्यन्त इन दिनों ज़रूरत से अधिक भौतिक साधनों से सुख-अर्जित करने का यह अन्तहीन चक्र यदि यूँ ही चलता रहा तो मन:स्थिति भी विचलित हो भँवर में धंसती ही रहेगी, यह मन:स्थिति ही हमारी खलनायिका है जिसने हमारे शांतिप्रार्थी नायक को अपने वशीभूत कर लिया है, इस उधेड़बुन में हमारा शान्ति-ध्यान-लक्ष्य पीछे छूट-सा गया है। मानसिक स्थिरता के लिये स्थित-प्रज्ञ प्रवृत्ति होना अत्यधिक ज़रूरी है।
द्रुतगति के इस वैज्ञानिक और भौतिक युग में प्रतिस्पर्धा की अन्धी दौड़ है। बचपन ही से इस तुलनात्मक द्दृष्टि की दौड़ शुरू हो जाती है, जिसने हमारे अन्तर्मन में क्रिया और प्रक्रिया की भूचाल-सी स्थिति बना दी, और संतुष्टि नामक प्रवृत्ति इस दावानल में ध्वस्त-सी हो गई, प्राय: लुप्त-सी हो गई है। आज की युवा पीढ़ी एक ऐसी मोमबत्ती है जो दोनो छोरों से निरन्तर जल रही है, जिसका प्रभाव शारीरिक और मानसिक रूप में होना ही था और यही हुआ भी है। यही बिगड़े हुए स्वास्थ्य की समस्या का मूल कारण भी बन गया है। इस अन्धी दौड़ में सन्तुष्टि-लब्धि (Satisfaction quotient) पूर्णत: लुप्त हो गई है।
आज का प्रगतिशील इन्सान एक रोबोट की जीवन शैली अपना चुका है, जहाँ भावनात्मक-लब्धि, पारिवारिक-लब्धि और सामुहिक-लब्धि की आहूति होना अतिशयोक्ति नहीं होगा, बस यही हमारी त्रासदी है और यही चरित्र मूल्यों को भी रसातल में ले जा रही है।
आई.टी. क्षेत्र की औद्योगिक क्रान्ति में उद्योगपतियों का सर्वोपरि लक्ष्य सिर्फ पैसा ही है, जिसमें हमारी युवा पीढ़ी की आहूति दी जा रही है जो अनुचित ही नहीं, किसी जघन्य अपराध से कम नहीं। आने वाली पीढ़ियों को इसका बहुत बड़ा मूल्य चुकाना होगा।
अपने लक्ष्य निर्धारित करें –
उपरोक्त समस्या का समाधान अत्यन्त सरल तो नहीं है अगर हम सुख-साधन की इस अनबुझ होड़ पर तनिक अंकुश लगा पायें। सुखपूर्ण जीवन की परिधि निश्चित करें, “पर्याप्त” की सीमा निर्धारित करें- “इतना ही पर्याप्त है” इसे समझे, अच्छे जीवन के लिये, बस यही निश्चित करना है। जिस दिन इस पर्याप्त भावना का उदय हो गया तो मन की चंचल स्थिति स्वत: ही नियन्त्रण में आ जायेगी और संतुष्टि के पुष्प खिलने लगेंगे। जिसकी सुगन्ध स्वयं के लिये, परिवार के लिए, समाज के लिये एवं देश के लिये स्वत: गुणकारी बन जायेगी।
यह आश्चर्य ही नहीं, विड़म्बना है कि युवा पीढ़ी के पास पर्याप्त समय ही नहीं कि वह स्वयं के साथ, अपनों के साथ जी सकें। ईकाइयों में बँटे हुए समॄद्ध परिवारों में पारिवारिक सद्भाव, पारस्परिक भावनात्मक पहलू लगभग लुप्त-सा हो गया है, जो नितान्त आवश्यक है सुखमयी जीवन के लिये। अब जब वह ही नहीं तो कहाँ से आयेगी सन्तुष्टि ? कहाँ से आयेगी शान्ति.? और कैसे होगा ध्यान ?
अध्यात्मवाद ध्यान की सरल कुंजी –
हमारे ऋषियों मुनियों का आध्यात्मिक चिंतन, उनकी ज्ञान-चर्चाऐं वेदों और उपनिषदों जैसे ग्रन्थों में प्रस्फ़ुटित होकर “ब्रह्मविद्या” का मूलाधार सार बन गये। कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ, अज्ञात की खोज के अभूतपूर्व प्रयास ही नहीं अपितु उस परमशक्ति की अनुभूतियों का वर्णनात्मक गूँथन है। उनका यह चिर योगदान सबके लिये अमूल्य निधि है, अपार कोष है, यही हमारी अजर, अमर, अमूल्य धरोहर है। इन काव्यात्मक रचनाओं से उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतरदृष्टि द्वारा समझना सहज हो जाता है। उनकी अदम्य आकांक्षा से प्रेरित काव्य लेखनी से ही आन्तरिक अनुभूति का संस्मरणात्मक सृजन हुआ, हम धन्य हुए।
ॐ का महत्व –
पवित्र ईश्वर वाणी “ॐ” का परिचय भी इसी से सम्भव हुआ। यह ना सिर्फ भारत भूमि की अमूल्य निधि बना बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिये चिंतन का स्रोत और प्रसाद भी बन गया। सबसे बड़ी बात यह है कि इन ग्रन्थों मे कहीं भी किसी देवता या देवी का उद्बोधन नहीं है, यह सब धर्मों और विचार शैलियों में सरलता और सम्पूर्णता से समा जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे विशाल सागर में अनेकानेक नदियाँ मिल जाती हैं, बिना किसी अवरोध के। यह वन्दनीय प्रयास ही संतुष्टि, शान्ति और ध्यान-जागृति के अनमोल रत्न हैं, मानवता की अद्भुत शाश्वत धरोहर है।
वेद, पुराण और उपनिषद शाश्वत सनातन धर्म सिर्फ ग्रन्थ ही नहीं ये पुष्पकुँज हैं जिनमें छुपी हुई ज्ञान-सुगन्ध जीवन शैली का पराग है और यही निचोड़ है सन्तुष्टि का। प्रकृति की मासूम गोद में नतमस्तक होकर हमें जीने की सहजता को सिखाया हैं जो पूजा और आराधना से कम नहीं, जो हमें योग्य ही नहीं पूजनीय बनाते हैं। आत्मसमर्पण भावना प्रज्वलित दीपक-सम है जिसके प्रकाश में “तत् त्वम् असि” – वह तुम हो – का बोध होता है, सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद् का महावाक्य है यह। इस शाश्वत सनातन भूमि में “वसुधैव कुटुम्बकम्” जैसी मीठी कल्पना जन्मी। कितना मधुर सन्देश है यह, सम्पूर्ण जगत के लिये! कितनी विशाल है ये परिकल्पना! कितना गहराई है इस चिन्तन में! सन्तुष्टि, शान्ति और ध्यान के लिये!
अयं बन्धुरयं नेति गणनालघुचेतसाम् ।
उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
अर्थ – यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, ऐसी सोच/गणना संकुचित चित्त वालों की है। उदार हृदय वाले सम्पूर्ण धरती को अपना ही परिवार मानते हैं।
“एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति” –
अर्थ – मूल सत्य एक ही है। अलग-अलग धर्मों में, परिवेशों में इसे पाने के अनेकानेक तरीके भले ही हों, अनेकानेक विचार भी हों लेकिन अन्त में निर्मल आनन्द का सत्य सिर्फ एक ही है। “विविधता में एकता” बहुमूल्य है, बहुर्मुखी होकर भी अन्तर्मुखी द्दष्टीकोण का होना ही ध्यान है, वही सर्वोपरि है। धर्मों की परिधियों में, सीमाओं मे, केवल विचारों को बांधा जा सकता है, मानवता को नहीं। नि:सन्देह प्रकृति ने लहू का रंग एक ही बनाया जो सिर्फ लाल के सिवाय दूसरा नहीं है।
धर्म की कोई जाति नहीं होती –
जब प्रकृति का अपना कोई धर्म या जाति नहीं होती तो विभिन्न धर्मों और विचारों की कैसे? क्या कोई भी सभ्यता पृथ्वी, आकाश, पानी, हवा एवं अग्नि जैसे प्रकृति के मूल पंचभूतों को किसी धर्म या जाति में बाँट सकती है ?कदापि नहीं। ये प्रवृत्तियाँ केवल मानवता के बीज बोती है और अन्तर्मन की ओर अग्रसित करती है, सन्तुष्टि, शान्ति और ध्यान की ओर, यही वो कुँजियाँ है जो एक ताला खोलती हैं जिसे “सत्–चित्-आनन्द” कहते हैं (सचिदानंद) अर्थात सत (अस्तित्व), चित (चेतना) और आनंद बस यही एक सत्य है हर मानव का।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
अर्थ – ॐ – सब सुखी हों, सब स्वस्थ हों। सब शुभ को पहचान सकें। कोई प्राणी दुःखी ना हो ।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय॥
ॐ शान्ति शान्ति शान्तिः॥
अर्थ – हे माता! हे प्रभु! हमे असत्य से बचा कर सत्य का मार्ग दिखाओ! हमारे अन्दर के अन्धकार और अज्ञानता को मिटा कर हम में ज्योति प्रज्वलित करो, निरन्तर मृत्यु से अमरता की और ले जाओ, यही ध्यान, यही सच्चा ज्ञान है इसे हमें प्रदान करो! (हमें शुभ-कर्म करने में समर्थ बना ताकि संसार से बिदा होने के बाद मानवता हमारे कर्मो का फल सदियों तक पाती रहें। यही अमरता है)! सभी धर्मों एवं पूरी मानवता के लिये, ये प्रार्थना भावना और विचार आत्मा का अमृत है, अनहद ॐ, औंकार ये शब्द ही अन्तर में गूँजती हुई आवाज़ है सबके लिये।
मंत्रों की गहराई –
उपरोक्त सभी श्लोकों में सार्वभौमिक सत्य, सन्तुष्टि एवं शान्ति मन्त्र की गहराई, सोच और ध्यान भावना सुनाई देती है, गूँजित हुई हैं। ये हृदयस्पर्शी प्रार्थनाएँ अन्तर्मन में सौहार्द भर देती है। कितना असीम है ये चिन्तन! कितनी दुर्लभ हैं ये प्रार्थनाएँ! मानवता के लिये, जो सीमित कल्पना-परिधि से परे है। इन श्लोकों द्वारा ये गूढ़ रहस्य वाली बातें हमारे ऋषियों ने कितनी सरलता से कह दी, ये सब उनकी अनुभूतियों से उभरी काव्यात्मक शाश्वत निधि हैं, जो मात्र ज्ञान से नहीं उपजी हैं।
हम भारतवासी कितने भाग्यशाली हैं, इस शाश्वत सनातन धरती पर वेदों और उपनिषदों का जहाँ प्रादुर्भाव हुआ, यह अतुल्य अमूल्य ज्ञान हमें विरासत में मिला है जिसकी महत्ता अब विश्व में भौतिकवाद में ड़ूबे बुद्धिजीवी एवं दार्शनिक भी खंगाल रहे हैं और स्वयं विस्मित हो रहे हैं! धीरे-धीरे वे समझ पा रहे हैं कि जीवन की सच्चाई और शान्ति, ध्यान-मार्ग से ही प्राप्त की जा सकती है। हाय! कैसी विड़म्बना है! कि हम स्वयं ही अपनी बहूमुल्य धरोहर को सहेज नहीं पा रहे हैं और इस शाश्वत निधि का अर्थ ही समझ नहीं पा रहे हैं।
अन्त में यही कहूँगा कि अन्तत: अब आध्यात्मिक जागरण से ही हम अपनी संस्कृति का सम्मान कर पाएँगे और उस पर गौरवान्वित हो सकेंगे।
